For The call From the Past ♦5♦

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करो कल्पना बड़े खुले आकाश की,
जय जय करता खड़ा सैन्य था, चलते आ रहे प्रकाश की,
शोर मचा अत्यंत पवित्र, गूंजे तबला, सरोद, सारंग की टंकार,
हस्त शूल लिए जंग में जाने को पधारे थे महाराज कुमार।

वही खड़ी थी सजधज आंसू रोक एक स्वर्णराज्य की रानी,
अपने कुमार की आरती को लिए खड़ी अभिमानी,
आंखें उसकी एक टक देखे जा रही थी अपने वर को,
भूले जा रही थी हर बीतते क्षण वहा खड़े जन सरोवर को।

चलते चलते धीरे से जाकर रुक गए वहा विक्रम कुमार,
हाथ उठा लगाया उनकी रमणी ने तिलक उनके कपार,
कांप गए हाथ उनके वर को तिलक करते हुए आज,
रोक न पाए नैन जल के सिंधु को, तत्पर देखता रहा समाज।

एक पल को रमणी का मन फिर से यूं डोला,
यहीं कुमार को रोक लो यह कई कई बार वह बोला,
बहते रहे अश्रु नैनन से, तभी भी न टूटा एतबार,
कर बढ़ा आगे उतरने लगी आरती उनकी, जानें समस्त आकाश और पारावार।

समाप्त हुई जब आरती रमणी की, कुमार ने हस्त उठा लोचन से उनके आंसू दिए पौंछ,
कहा – “माया, आप रखें ये कीमती अश्रुओं को औंछ,
यहीं कुछ दिन में आपका ये वर जरूर लौट कर आएगा,
आपकी जो इक्षा होगी वह यह कुमार पूरी कराएगा।”

हाथ थाम उनका धीरे से फिर माया बोली –“जानूं मैं पहले मैं गढ़ की राज्ञी हूं, और बाद आपकी सौभागी हूं,
आपकी चाल पर तो मैं प्राण त्यागने को राज़ी हूं,
पर संकट में आपको देखने का सोचकर भी मेरा हीय घबराता है,
उस युद्ध में जाते देख, कलेगा जैसे तर तर कट जाता है।”

“जो जा रहे है तो जाइए आपकी सहचारी न आपको रोकेगी,
जो जा रहे हैं तो जाइए, यूं जाते हुए ये संगिनी न टोकेगी,
पर वहा खुद का ध्यान रखना ये तो कह सकती है न,
अपने स्वामी के जाने पर एक गृहणी तो रो सकती है न।”

~Shree S.

Swarnagarh Samhita : The poetic collection from Swarnagarh Where stories live. Discover now